राजनीतिक विश्लेषकों का दृष्टिकोण: बिहार चुनाव में कोई जीते भाजपा के हाथ लगेगी सिर्फ़ ‘हार’!*
राणा ओबराय
राष्ट्रीय खोज/भारतीय न्यूज,
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राजनीतिक विश्लेषकों का दृष्टिकोण: बिहार चुनाव में कोई जीते भाजपा के हाथ लगेगी सिर्फ़ ‘हार’! जानिए क्यों होगा ऐसा!*
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बिहार की 243 विधान सभा सीटों के लिए चुनाव सम्पन्न हो गये हैं। चुनाव परिणाम 14 नवंबर को आएगा।
बिहार चुनाव से जुड़े ज्यादातर एग्जिट पोल में एनडीए की जीत का अनुमान जताया गया है। एग्जिट पोल का रिकॉर्ड फिफ्टी-फिफ्टी का रहा है इसलिए इसके आधार पर सरकार किसकी बनेगी यह अनुमान लगाना मुश्किल है मगर एक बात तय है कि सरकार किसी की बने भाजपा को बिहार चुनाव में हार ही मिलनी है। वह चाहे सीधे मिले या उल्टे।
अगर राजद-कांग्रेस-भाकपामाले का महागठबंधन चुनाव जीतता है तो भाजपा-जदयू को सीधी हार मिलेगी। यदि एग्जिट पोल के अनुसार जदयू-भाजपा नीत एनडीए को जीत मिलती है तब भाजपा की स्थिति जीतकर हारे हुए जुआरी जैसी होगी।
एग्जिट पोल अगर सही साबित हुए तो जदयू की सीटों में भाजपा और राजद के मुकाबले ज्यादा उछाल देखने को मिलेगी।
*ज्यादा सीटों का मतलब होगा नीतीश कुमार ज्यादा मजबूत*
इसका दूसरा मतलब ये भी होगा कि बिहार में अपना सीएम देखने के लिए भाजपा को अभी और इंतजार करना होगा। बिहार हिन्दी पट्टी का एकमात्र प्रदेश है जहाँ भाजपा आज तक अपना मुख्यमंत्री नहीं बना सकी है।
*नीतीश ड्राइवर, भाजपा-राजद स्टेपनी*
वर्ष 2005 से लेकर 2025 के बीच दो छोटे अंतरालों (जब जदयू-राजद की सरकार रही) को छोड़ दें तो भाजपा लगातार बिहार की सत्ता में रही है मगर उसकी हालत गाड़ी की स्टेपनी जैसी रही है। इन दो दशकों में नीतीश कुमार बिहार का ड्राइवर रहे हैं और उनका जब मन किया उन्होंने स्टेपनी बदल ली। भाजपा से थोड़ी समस्या हुई तो राजद की स्टेपनी लगा ली और उससे दिक्कत हुई तो फिर से भाजपा का इस्तेमाल कर लिया।
भाजपा पार्टी ही नहीं बिहार में करीब दो दशक तक बिहार भाजपा का चेहरा रहे सुशील मोदी की भी छवि नीतीश कुमार के स्टेपनी की बन चुकी थी। बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार के समकालीन रहे सुशील मोदी जब राज्य के डिप्टी सीएम बने तो उनकी इस छवि पर आधिकारिक मुहर लग गयी।
जिस तरह भाजपा के अन्दर अटल-आडवाणी की जोड़ी थी कुछ वैसी ही बिहार के अन्दर नीतीश-सुशील की जोड़ी थी। कई राजनीतिक जानकार मानते हैं कि जिस नेता के ऊपर डिप्टी का ठप्पा चिपक जाए उसे जनता भी डिप्टी से ऊपर प्रमोट होते नहीं देखना पसन्द करती। भाजपा 2015 के बिहार विधान सभा चुनाव में नीतीश विहीन एनडीए के रूप में मैदान में थी। जदयू से अलग एनडीए को राज्य की 243 में से महज 53 सीटों पर जीत मिली। उस समय सुशील मोदी बिहार भाजपा के सबसे प्रमुख चेहरा माने जाते थे। कह सकते हैं कि उस बिहार चुनाव में भाजपा की हालत वैसी हुई है जैसी लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में लड़े गये 2009 के लोक सभा चुनाव में हुई थी। 2014 के लोक सभा चुनाव में भाजपा ने नरेंद्र मोदी के रूप में अपना नेता बदला और आम चुनाव में ऐतिहासिक विजय प्राप्त की मगर बिहार में उसकी किस्मत नहीं पलटी।
नरेंद्र मोदी को पीएम फेस बनाने से नाराज नीतीश कुमार ने 2015 के बिहार चुनाव में स्टेपनी बदल दी। नतीजा ये हुआ कि लालू यादव के दो बेटों तेज प्रताप और तेजस्वी ने नीतीश कुमार के दायें-बायें खड़े होकर मंत्री पद की शपथ ली। तमाम उलट-पलट के बाद नीतीश कुमार भाजपा के साथ बिहार चुनाव में उतरे। जिस दौर में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा बाकी देश में सफलता के नए कीर्तिमान बना रही थी उसी दौर में वह बिहार में नीतीश कुमार के डिप्टी की भूमिका से आगे नहीं बढ़ पा रही थी। बिहार में भाजपा की बेबसी का आलम ये रहा कि जब उसने जदयू के साथ बराबर-बराबर (101 सीटें) पर चुनाव लड़ने की घोषणा की तो मीडिया के एक धड़े ने इसे जदयू के अपमान की तरह पेश किया। इसे जदयू की बड़े भाई की भूमिका पर दाग की तरह देखा जबकि 2020 के चुनाव में भाजपा को 74 और जदयू को केवल 43 सीटों पर जीत मिली थी।
*बिहार में भाजपा की दीर्घकालीन रणनीति*
कुछ राजनीतिक जानकार दावा करते हैं कि भाजपा लम्बे दौर की रणनीति पर काम कर रही है। वह नीतीश कुमार के जनाधार को अपने अन्दर समेटने की योजना पर धीरे-धीरे अमल
कर रही है।

