खेल

क्या है गुरु दीक्षा

मनोज कु शर्मा

जिसे प्राप्त करना ही जीवन की पूर्णता कहा गया है,इस सृष्टि के समस्त जड़-चेतन पदार्थ अपूर्ण हैं, क्योंकि पूर्ण तो केवल वह ब्रह्म ही है जो सर्वत्र व्याप्त है। अपूर्ण रह जाने पर ही जीव को ‘पुनरपि जन्मं पुनरपि म रणं’ के चक्र में बार-बार संसार में आना पड़ता है, और फिर उन्हीं क्रिया-कलापों में संलग्न होना पड़ता है। शिशु जब मां के गर्भ से जन्म लेता है, तो ब्रह्म स्वरुप ही होता है, उसी पूर्ण का रूप होता है, परन्तु गर्भ के बाहर आने के बाद उसके अन्तर्मन पर अन्य लोगों का प्रभाव पड़ता है और इस कारण धीरे-धीरे नवजात शिशु को अपना पूर्णत्व बोध विस्मृत होने लगता है और एक प्रकार से वह पूर्णता से अपूर्णता की ओर अग्रसर होने लगता है। और इस तरह एक अन्तराल बीत जाता है, वह छोटा शिशु अब वयस्क बन चुका होता है। नित्य नई समस्याओं से जूझता हुआ वह अपने आप को अपने ही आत्मजनों की भीड़ में भी नितान्त अकेला अनुभव करने लगता है। रोज-रोज की भीग-दौड़ से एक तरह से वह थक जाता है, और जब उसे याद आती है प्रभु की, तो कभी-कभी पत्थर की मूर्तियों के आगे दो आंसू भी ढुलक देता है। परन्तु उसे कोई हल मिलता नहीं। चलते-चलते जब कभी पुण्यों के उदय होने पर सदगुरू से मुलाक़ात होती है, तब उसके जीवन में प्रकाश की एक नई किरण फूटती है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि मात्र सदगुरू ही उसे बोध कराते है, कि वह अपूर्ण था नहीं अपितु बना गया है। गुरुदेव उसे बोध कराते हैं, कि वह असहाय नहीं, अपितु स्वयं उसी के अन्दर अनन्त संभावनाएं भरी पड़ी हैं, असम्भवको भी सम्भव दिखाने की क्षमता छुपी हुई है, गुरु कि इसी क्रिया को दीक्षा कहते हैं, जिसमे गुरु अपने प्राणों को भर कर अपनी ऊर्जा को अष्ट्पाश में बंधे जिव में प्रवाहित करते है। गुरु दीक्षा प्राप्त करने के बाद साधक का मार्ग साधना के क्षेत्र में खुल जाता है। साधनाओं की बात आते ही दस महाविद्या का नाम सबसे ऊपर आता है। प्रत्येक महाविद्या का अपने आप में अलग ही महत्त्व है। लाखों में कोई एक ही ऐसा होता है जिसे सदगुरू से 
महाविद्या दीक्षा प्राप्त हो पाती है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद सिद्धियों के द्वार एक के बाद एक कर साधक के लिए खुलते चले जाते है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!