पितृ-पक्ष या श्राद्ध-पर्व पितरों का स्मरण करने की परम्परा है
पितर यानि हमारे पूर्वज। महर्षियों द्वारा निर्धारित यह पवित्र व्यवस्था मनुष्य जाति को स्वयं सोचने के लिए विवश करती है।
हमारे पूर्वजों ने क्या खोया और क्या पाया ? पितृपक्ष के दौरान इस सवाल का जवाब ढूढ़ना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिये। हमारे स्वजन जिनके प्राणों का अन्त हो चुका है, उनको श्रृद्धाजंलि देना, उनके गुणों एवं कीर्ति्मान को कायम रखने का प्रयास ही पितृ-पूजन है। प्रेत मतलब हमारे पूर्वज। उन्होंने क्या किया, उनकी कीर्ति् और यश से प्रेरणा लेना ही प्रेत-पूजा है।
मनुष्य तामसी श्रृद्धा वाला होकर शरीर में ही अनुरक्त रहता है। शरीर में मामा का परिवार, अपना परिवार, ससुराल का परिवार तथा सुहृद है। यहीं तक शरीर की सीमा है। इधर शरीर छुटा कि उधर दूसरा वस्त्र तैयार। ऐसे में हमारी दान की हुई वस्तु या भोजन पूर्वज कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? ……..
इसका अर्थ यही है कि मनुष्य जानबूझ कर तन, मन व धन से लुट जाने को तत्पर हैं। अर्जुन को भी यही डर सता रहा था कि पिण्ड परम्परा समाप्त हो जायेगी, स्त्रियाँ दूषित हो जायेंगी, वर्ण संकर पैदा होंगे जो कुल तथा कुलघातियों को नरक में ले जायेंगे, सनातन धर्म नष्ट हो जायेगा। तब भगवान कृष्ण ने उसकी शंकाओं का उचित समाधान बताया जो पूरे मानव पर लागू होता है।
सभी मानव, मनु की उत्पत्ति है तो जितने महापुरुष विश्व में हुये हैं, वे सभी हमारे पूर्वज हैं। जिस कर्म को उन सभी ने किया वही कर्म करना हम सभी के लिए सर्वोपरी है। यही हमारा धर्म, कर्म तथा आराधना है।
हंस (जीवात्मा) वास्तव में सुवरन-शुद्ध वर्ण का है। केवल स्वरुप के विस्मृत हो जाने से विकल होकर दर-दर भटक रहा है। इस आत्मा को परमात्मा तक की दूरी तय करा देने वाली प्रक्रिया- विशेष का नाम ही कर्म है ।
पितृपक्ष में कौए का बहुत महत्व है। क्योकि कागभुसुण्डी जी को भी महर्षि लोमश के शाप ने चाण्डाल पक्षी कौआ बनाया था। महर्षि का शाप कागभुसुण्डी के लिए वरदान बन गया तथा उसने राममंत्र के सहारे राम भक्ति प्राप्त कर ली थी। यह उदाहरण मनुष्य की आँख खोलने के लिये पर्याप्त है।