शिक्षा और रोज़गार की बढ़ती दूरी
शिक्षक दिवस का पर्व शिक्षा के किसी भी पहलू पर सोच विचार करने का भी अच्छा मौका होता है. इसीलिए आमतौर पर भारतीय शिक्षा प्रणाली पर भी इसी दिन कुछ बातें हो जाती हैं. क्या है? और क्या कम है? ये सुनने को इसी दिन सबसे ज्यादा मिलता है. हालांकि क्या होना चाहिए? इस पर व्यवस्थित और स्पष्ट निष्कर्ष निकलते नहीं देखे जाते. इस कवायद को एक बार फिर से शुरू करने का आज से बेहतर और कौन सा दिन होगा.
शिक्षा का मकसद
शिक्षा में सुधार की जब भी बात आती है तो सुधार का खाका बनाने के लिए सबसे पहला काम शिक्षा के सभी लक्ष्य देख लेने से शुरू होना चाहिए. शिक्षा जरूरी क्यों है इसके अनगिनत लाभ गिनाए जाते हैं. आखिर में निर्विवाद रूप से शिक्षा को बुनियादी जरूरत माना गया है. यह भी लगभग तय हो चुका है कि शिक्षा और बाकी समस्याओं में कॉज एंड इफेक्ट यानी कारण और प्रभाव का संबंध है. चाहे गरीबी हो, अपराध, हिंसा, शोषण, महिला अशक्तिकरण हो या रोजमर्रा में सही गलत का फर्क समझने की बात हो, हर मामले में हम शिक्षा के महत्व को निर्धारित करते हैं. इनके अलावा आजकल एक और बड़ी समस्या से हम रूबरू हैं वह है बेरोजगारी. आज के दौर में यह सबसे बड़ी समस्या तब और भी बड़ी बन जाती है जब बेरोजगारी के आंकड़े देश की आर्थिक वृद्धि को चुनौती दे रहे हों. अगर सामान्य अनुभव से भी देखें तो अधिकांश लोगों का शिक्षित होने का एक मात्र ध्येय खुद के लिए रोजगार का प्रबंध करना ही है. आजकल पढ़ाई के लिए विषय चुनने से लेकर किस संस्थान से पढ़ाई करनी है, ऐसा हर फैसला सिर्फ यह ध्यान में रखकर हो रहा है कि उस क्षेत्र में कितनी नौकरियां हैं.
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थ्योरी और प्रैक्टिस के बीच धरती-आसमान का फर्क
अगर रोजगार को ही शिक्षा का मुख्य ध्येय मान लें तो हमें अपनी भारतीय शिक्षा प्रणाली को उस लिहाज से भी देखना पड़ेगा. मसलन हर डिप्लोमा, स्नातक और परास्नातक कोर्स में उस विषय की सैद्धांतिक अवधारणाएं पढ़ाई जाती हैं. लेकिन वह थ्योरी यानी सिद्धांत उसके कार्य क्षेत्र में इस्तेमाल कैसे होंगे इसका प्रशिक्षण देने में हमारी मौजूदा शिक्षा प्रणाली असमर्थ दिख रही है. हम जो छात्र तैयार कर रहे हैं वे क्लासरूम सिचुएशन से बाहर की बात सोच ही नहीं पाते. इसीलिए जब नौकरी के लिए किसी इंटरव्यू में बैठते हैं तो कंपनी उन्हें अच्छे अंक होते हुए भी अपने काम का नहीं मानती. और जिन्हें नौकरी मिल जाती है तो उन्हें काम पर जाते ही इस हकीकत का सामना करना पड़ता है कि जो पढ़ा है और जो हो रहा है उसमें तो धरती-आसमान का फर्क है. इसीलिए क्लास रूम शिक्षा का एक लक्ष्य थ्योरी और प्रैक्टिस के बीच की खाई को पाटने का भी होना चाहिए. करिकुलम यानी पाठयक्रम यह ध्यान रखकर बनना चाहिए जिससे छात्र अपने पढ़े हुए को अपने व्यावसायिक क्षेत्र में इस्तेमाल करने लायक बन सके.
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निजी क्षेत्र की कंपनियों की दिक्कत
बेरोजगारी दर हद से ज्यादा हो गई है. और बढ़ती जाएगी क्योंकि हमारी जनसंख्या वृद्धि की गति हमारे रोजगार पैदा करने की रफ्तार से कहीं ज़्यादा है. लेकिन कम नौकरियां और ज्यादा दावेदारों की भीड़ वाले इस समय में एक बड़ी अजीब बात भी है. मानव संसाधनों की जरूरतमंद कंपनियों को प्रशिक्षित और कुशल लोग ढूंढने में भारी मुश्किल आ रही है. कैंपस से जो प्रत्याशी चुने जाते हैं, उनको अपने काम के मुताबिक ट्रेनिंग देने का खर्चा कई बार इतना ज्यादा होता है, जो हर नौकरीदाता नहीं उठा सकता. और अगर यह खर्चा उठाना उसकी मज़बूरी बन जाए तो वह क्यों नहीं चाहेगा कि उसके पैसे से प्रशिक्षित वह एक युवक चार लोगों का काम कर दे. एक तरफ देश में बेरोज़गारों की फौज खड़ी है और जो नौकरी कर रहे हैं उन्हें दस से बारह घंटे काम करना पड़ रहा है. यानी ओवरटाइम करना पड़ रहा है. क्या अपने आप में ही यह विसंगत बात नहीं है.
यानी जरूरत के मुताबिक सोचना पड़ेगा
मौजूदा हालात सुझाव दे रहे हैं कि हमें अपनी शिक्षा प्रणाली में शिक्षित के साथ-साथ छात्र को एम्प्लॉएबल यानी नौकरी पाने लायक भी बनाना पड़ेगा. सिर्फ डिग्री रोजगार नहीं दिलवा सकती. और इतने प्रतिस्पर्धा वाले दौर में तो बिल्कुल भी नहीं. अपने विषय से जुड़े कन्सेप्ट, उन्हें व्यवहार में लाने की समझ, नौकरी के उम्मीदवार का व्यक्तित्व, टीम में काम करने की समझ और ऐसे कई पहलू मिल कर एक कंपलीट पैकेज बनाते हैं. यानी तभी उसे एम्प्लॉएबल समझा जाता है. अभी हमारे शिक्षा तंत्र में छात्र को सिर्फ विषय की थ्योरी देकर और बाकी चीजें छात्र पर ही छोड़ दी जा रहीं हैं. सिर्फ यही एक संयोजन हमारी शिक्षा प्रणाली में बड़ा सुधार ला सकता है. और इस सुधार को मात्रात्मक रूप में हर शिक्षण प्रशिक्षण संस्थान अपने प्लेसमेन्ट रेट से नाप भी सकता है.