Saturday, July 27, 2024
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69 लाख बकाया की बजह से रोकी गई ऑक्सीजन सप्लाई

गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में ऑक्सीजन की सप्लाई रोक दिए जाने की वजह से 40 बच्चों की मौत हो गई।* ये सभी बच्चे  एनएनयू वार्ड और इंसेफेलाइटिस वार्ड में भर्ती थे। जनवरी से लेकर 11 अगस्त तक इंसेफेलाइटिस की वजह से इस मेडिकल कॉलेज में इलाज के दौरान 151 मासूमों की मौत हो चुकी है जिनमे से 40 बच्चे 10 और 11 अगस्त को मर गए। गौरमतलब है कि यह मेडिकल कॉलेज यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पूर्व संसदीय क्षेत्र में आता है। आदित्यनाथ घटना से दो ही दिन पहले इस अस्पताल का दौरा भी करके गया था। खबरों के अनुसार अस्पताल पर ऑक्सीजन सप्लाई करने वाली कंपनी का 69 लाख का बिल बकाया था। इस वजह से कंपनी ने गुरुवार यानि 10 अगस्त को अस्पताल के लिए ऑक्सीजन की सप्लाई रोक दी थी। लिक्विड ऑक्सीजन बंद होने के बाद आज सारे ऑक्सीजन सिलेंडर भी खत्म हो गए। इंसेफेलाइटिस वार्ड में दो घंटे तक अम्बू बैग का सहारा लिया गया लेकिन बिना ऑक्सीजन के यह तरीका ज्यादा देर तक कारगर नहीं हो पाया और इस तरह से सरकार की उदासीनता, अस्पताल प्रशासन की लापरवाही और कंपनी की मुनाफाखोरी की गाज अस्पताल में भर्ती बच्चों पर गिरी। बीआरडी मेडिकल कॉलेज में दो वर्ष पूर्व लिक्विड ऑक्सीजन का प्लांट लगाया गया। इसके जरिए इंसेफेलाइटिस वार्ड समेत 300 मरीजों को पाइप के जरिए ऑक्सीजन दी जाती है। इसकी सप्लाई करने वाली कंपनी पुष्पा सेल्स है। कालेज पर कंपनी का 68 लाख 58 हजार 596 रुपये का बकाया था और बकाया रकम की अधिकतम तय राशि 10 लाख रुपये है। बकाया की रकम तय सीमा से अधिक होने के कारण देहरादून के आईनॉक्स कंपनी की एलएमओ गैस प्लांट ने गैस सप्लाई देने से इनकार कर दिया। नतीजा यह हुआ कि बात की बात में 40 मासूम इस मुनाफाखोर व्यवस्था की भेंट चढ़ गए।
यह भी एकदम से नहीं हुआ, बल्कि गुरुवार की शाम से ही बच्चों की मौत का सिलसिला शुरू हो गया था। ऑक्सीजन की सप्लाई रुकी पड़ी थी और एक-एक कर बच्चों की मौत हो रही थी। अस्पताल के डॉक्टरों ने पुष्पा सेल्स के अधिकारियों को फोन कर ऑक्सीजन भेजने की गुहार लगाई तो कंपनी ने पैसे मांगे। तब कॉलेज प्रशासन भी नींद से जागा और 22 लाख रुपये बकाया के भुगतान की कवायद शुरू की। पैसे आने के बाद बाद ही पुष्पा सेल्स ने लिक्विड ऑक्सीजन के टैंकर को भेजने का फैसला किया है। लेकिन अब तक तो बहुत देर हो चुकी थी और 40 बच्चे भी मर चुके थे। यह खबर आने तक कहा जा रहा था कि यह टैंकर शनिवार की शाम या रविवार तक ही अस्पताल में पहुंच पायेगा। मौत के ऊपर लापरवाही और लालच का यह खेल भी नया नहीं है, पिछले साल अप्रैल में भी इस कंपनी ने 50 लाख बकाया होने के बाद इसी तरह ऑक्सीजन की सप्लाई रोक दी थी।
दूसरी तरफ सरकार और प्रशासन का रुख भी इस मामले में बेहद शर्मनाक रहा। हिंदुस्तान टाइम्स की खबर के अनुसार अस्पताल के डॉक्टरों ने प्रशासनिक अधिकारियों को संकट की जानकारी दी और मदद मांगी। मगर जिले के आला अधिकारी बेपरवाह रहे। वार्ड 100 बेड के प्रभारी डॉ. कफील खान के बार बार फोन करने के बाद भी किसी बड़े अधिकारी व गैस सप्लायर ने फोन नहीं उठाया तो डॉ. कफील ने अपने डॉक्टर दोस्तों से मदद मांगी और अपनी गाड़ी से ऑक्सीजन करीब एक दर्जन सिलेंडरों को ढुलवाया। उनकी कोशिशों के बाद एसएसबी व कुछ प्राइवेट अस्पतालों द्वारा कुछ मदद की गई। सशस्त्र सीमा बल के अस्पताल से बीआरडी को 10 जंबो सिलेंडर दिए गए। लेकिन अभी भी स्थिति भयावह थी और ज्यादा मौतें होने की सम्भावना बनी रही थी।
बीमारी का यह हमला आकस्मिक नहीं था। इंसेफेलाइटिस की वजह से हर साल हमारे देश में हजारों बच्चे मर जाते हैं। यह बीमारी हर इसी मौसम में अपना कहर ढाती है। 1978 से अब तक इंसेफेलाइटिस अकेले पूर्वांचल में 50 हजार से अधिक मासूमों को लील चुकी है। 2005 में इसने महामारी का रूप लिया था। तब अकेले बीआरडी मेडिकल कालेज में 1132 मौतें हो गई थीं। मई 2017 में उत्तर प्रदेश सरकार ने इस बीमारी को जड़ से खत्म करने के लिए अभियान शुरू किया था। मोदी की तारीफों के पुल बांधते हुए आदित्यनाथ ने घोषणा की थी कि मोदी के आशीर्वाद से पोलियो और फ़ाइलेरिया की तरह इंसेफेलाइटिस को भी खत्म कर दिया जायेगा। लेकिन हुआ ये कि जो बच्चे बच सकते थे उनकी एक तरह से हत्या कर दी गई। अब गोरखपुर के डीएम राजीव रौतेला ने घटना की जांच की बात कही है। जाहिर है जब तक जाँच होगी तब तक हमेशा की तरह इस मामले को भी फाइलों के नीचे दबाया जा चुका होगा।
और यह सिर्फ गोरखपुर या इस एक अस्पताल की बात नहीं है। पूरे ही देश में स्वास्थ्य सेवाओं का यही हाल है। जनता को हर तरह की स्वास्थ्य सेवा देने की जिम्मेदारी होती है सरकार की। लेकिन अव्वल तो सरकार यह करती नहीं है और कुछ सरकारी अस्पताल जो ठीक ठाक काम करते भी थे उनकी हालत भी अब बद से बदतर होती जा रही है। पिछले दो दशक में आर्थिक सुधारों और नवउदारवादी नीतियों के चलते यहाँ हर क्षेत्र की तरह जनस्वास्थ्य की हालत भी खस्ता हो चुकी है। सरकार लगातार इस क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढाती जा रही है। अब पूंजीपति तो कोई भी काम मुनाफे के लिए ही करता है तो साफ है कि स्वास्थ्य सेवाएँ महँगी तो होनी ही हैं। और महँगी होने के बाद भी जान नहीं बचती। परिणाम हमारे सामने है। किस तरह मुनाफे के लिए पुष्पा सेल्स नाम की इस कंपनी ने 40 बच्चों की जान ले ली है। लेकिन साथ में सरकार और प्रशासन भी बराबर जिम्मेदार है।
बहरहाल अच्छे दिनों, भारत निर्माण, इंडिया शाइनिंग के लोकलुभावने नारे देने वाली और लव जिहाद, गौहत्या जैसे साम्प्रदायिक मुद्दे उछालने वाली सरकारों को आम आदमी की सेहत का कोई ख्याल नहीं रहता है। पहली बात तो ऑक्सीजन या दवाओं या फिर किसी भी जरूरी सामान की उपलब्धता सरकार को ही सुनिश्चित करनी चाहिए और अगर नहीं करती है तो इस उपलब्धता को सुनिश्चित के लिए जरुरी बजट हर हाल में उपलब्ध होना चाहिए। साथ में यह भी सुनिश्चित होना चाहिए कि यह बजट सही समय पर सही जगह लग जाए। लेकिन इनमें से कोई भी चीज नहीं होती और इसी तरह से मरीज मौत का शिकार हो जाते हैं। बजट की बात करें तो विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार किसी भी देश को अपनी जीडीपी का कम से कम 5 प्रतिशत हिस्सा स्वास्थ्य क्षेत्र में लगाना चाहिए। भारत की सरकारों ने पिछले दो दशक के दौरान लगातार 1 प्रतिशत के आसपास ही लगाया है। 11वीं पंचवर्षीय योजना में 2 प्रतिशत का लक्ष्य रखा गया था और केवल 1.09 प्रतिशत ही लगाया गया। 12वीं योजना के पहले सरकार ने उच्च स्तरीय विशेषज्ञों का एक ग्रुप बनाया था जिसने इस योजना में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए जीडीपी का 2.5 प्रतिशत निवेश करने की सिफारिश की थी लेकिन सरकार द्वारा लक्ष्य रखा सिर्फ 1.58 प्रतिशत। पिछले बजट में भी यह डेढ़ प्रतिशत के आसपास ही रहा है। भारत में स्वास्थ्य सेवाओं में निजी क्षेत्र द्वारा किया गया निवेश इस क्षेत्र में किये गए कुल निवेश का 75 प्रतिशत से भी ज्यादा है। पूरी दुनिया में स्वास्थ्य सेवाओं के अंतर्गत निजी क्षेत्र की होने वाली सबसे बड़ी भागीदारियों में एक नाम भारत का भी है। जाहिर है कि निजी क्षेत्र की ये कंपनियां लोगों के स्वास्थ्य की से खेलते हुए पैसे बना रही हैं। इनकी दिलचस्पी लोगों के स्वास्थ्य में नहीं बल्कि अपने मुनाफे में होती है और जब इनको लगता है कि मुनाफा कम होने लगा है या उसमें कोई अडचन आ गई है तो ये ऐसा ही करती हैं जैसे इन्होने गोरखपुर के इस अस्पताल में किया। और यह सब सरकार की शह पर होता है।
इसके अलावा देश के हर नागरिक हो स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित होनी चाहिए। सही समय पर सही अस्पताल, डॉक्टर और इलाज मुहैया हो यह जिम्मेदारी भी सरकार की ही है। मानकों के अनुसार हमारे देश में हर 30000 की आबादी पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, हर एक लाख की आबादी पर 30 बेड वाले एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और हर सब डिविजन पर एक 100 बेड वाला सामान्य अस्पताल होना चाहिए लेकिन यह भी सिर्फ कागजों पर है। और यह कागजों के मानक भी सालों पुराने हैं जिनमें कोई बदलाव नहीं किया गया है। बदलाव करना तो दूर की बात है इन्हीं मानकों को सही ढंग से लागू नहीं किया जाता जबकि पिछले दो दशक में कुकुरमुत्तों की तरह प्राइवेट और कॉर्पोरेट अस्पताल जरुर उग आये हैं जिनमें जाकर मरीज या तो बीमारी से मर जाता है या फिर इनके भारीभरकम खर्चे की वजह से। अब सरकार एक और शिगूफा लेकर आई है, पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप। मतलब सरकार अब प्राइवेट कंपनियों के साथ सहकारिता करेगी और लोगों को अन्य सेवाओं के साथ स्वास्थ्य सेवाएँ भी उपलब्ध करवाएगी। यह शिगूफा और कुछ नहीं बल्कि पुष्पा सेल्स जैसी कंपनियों को मुनाफा देने की कवायद है ताकि ये पैसे बना सकें और समय आने पर इस मामले की तरह लोगों की जान से खेल सकें।
बहरहाल बात ये है कि इन बच्चों सहित इस देश में रोज होने वाली ऐसी मौतों, जिनको रोका जा सकता था, के लिए मुनाफे पर आधारित यह व्यवस्था जिम्मेदार है। साथ में जिम्मेदार है इस देश की सरकारें जो कहने को तो इस देश की हैं लेकिन काम वे करती हैं पूंजीपतियों के लिए। किस तरह से इस मानवद्रोही व्यवस्था को खत्म किया जाये यह आज के समय का सबसे बड़ा सवाल है और इसका जवाब हम सबको ही ढूँढना होगा ताकि इस तरह से मासूमों की बलि न चढ़ सके।

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