सच्चा प्रेम रोग नही, औषदि है ;- ओशो रजनीश*
राणा ओबराय
राष्ट्रीय ख़ोज/भारतीय न्यूज,
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
सच्चा प्रेम रोग नही, औषदि है ;- ओशो रजनीश*
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
भक्त प्रेमी की भांति है। उसे उसकी राधा मिल गई। लेकिन फासला है। प्रेमी जानते हैं विरह को। जिसने प्रेम नहीं किया वह कैसे जानेगा? जिसको स्वाद ही नहीं लगा उस रस का, वह कैसे जानेगा, कि स्वाद का अभाव क्या है? प्रेमी जानते हैं, विरह को। और अगर तुम परम प्रेमियों को गौर से देखो, तो जितने ही वे करीब आते हैं, उतना ही विरह बढ़ता जाता है। क्योंकि कितने ही करीब आते हैं, फिर भी लगता है कि बिलकुल एक नहीं हो पाते। कुछ फासला है। शरीर मिल जाते हैं। लेकिन मन अलग हैं। कभी-कभी किसी सहन संभोग के क्षण में मन भी मिल जाते हैं। लेकिन फिर भी चेतनाएं अलग हैं। प्रेम में पूर्ण मिलन तो हो भी नहीं सकता, भक्ति में ही हो सकता है। लेकिन भक्त को थोड़े दिन की जो शरीर यात्रा बाकी है, यह यात्रा पिछले जन्म से संबंधित है। शरीर के अपने कर्मों का जाल है, वह पूरा होना है। वह पूरा होगा। तो बुद्ध ने कहा है, कि एक तो निर्वाण है जो जीते व्यक्ति को उपलब्ध होता है और दूसरा महानिर्वाण है, जब शरीर गिर जाता है, तब उपलब्ध होता है। हिंदू कहते हैं, जीवन मुक्त और मोक्ष। जैन कहते हैं, केवल ज्ञान और कैवल्य। ज्ञान तो हो गया, तैयारी पूरी है, बस नाव की प्रतीक्षा है, कब आ जाए। थोड़ी देर तट पर खड़े रहना है। प्रतीक्षा दुर्भर हो जाती है। जैसे-जैसे समय करीब आता है…
तुमने कभी रेलवे स्टेशन पर देखा लोगों को प्रतीक्षा करते? कभी गाड़ी के आने में देर है। वह अखबार पढ़ रहे हैं, गपशप कर रहे हैं, चाय पी रहे हैं, यहां वहां जा रहे हैं। कोई नहीं देख रहा है, कि गाड़ी आ रही है या नहीं। घंटा बजा। एक लहर दौड़ गई। लोगों ने अपने सामान संभाल लिए। बैग उठा लिए, कपड़े-लत्ते ठीक कर लिए, खड़े हो गए, बातचीत बंद हो गई। गाड़ी जैसे-जैसे आती, स्टेशन वैसे-वैसे आतुर होता जाता है। लोग बिलकुल तैयार हैं। किस क्षण…एक क्षण भी अब मुश्किल मालूम पड़ता है।
ठीक वैसी दशा भक्त की हो जाती है। नाव करीब है। खबर आ गई। संदेश आ गए हवाओं में। नाव दिखाई भी पड़ने लगी किनारे की तरफ आती। भक्त किनारे पर खड़ा है।
सब रग तंत रबाब तन, विरह बजावे नित्त,
और न कोई सुन सके, कै सांई के चित्त।
इस तन का दीवा करूं, बाती मूल्यूं जीव,
लोही सींचौ तेल ज्यूं, कब मुख देख्यां पीव।
उस प्यारे का मुंह कब देखूंगा? सब करने को राजी हूं। इस तन का दीवा करूं–इस सारे शरीर को दीया बनाने को राजी हूं।
बाती मेल्यूं जीव–प्राण को बाती बनाने को राजी हूं।
लोही सींचौ तेल ज्यूं–खून को तेल बनाने को राजी हूं।
…कब मुख देख्यौ पीव। कब देखूंगा प्यारे का मुख? कब होगा उससे पूर्ण मिलन? कब ऐसे मिट जाऊंगा जैसे बूंद सागर मग खो जाती है, कि रत्ती भर का फासला न हर जाए, दुई न रह जाए।
जब तक शरीर है, तब तक थोड़ी सी दुई बची रहती है। डूबा रहता है घड़ा पानी में, लेकिन जरा सा फासला बना रहता है। वह फासला ही विरह की अग्नि है। और धन्य हैं, वे जो विरह को जान लेते हैं। क्योंकि वे, वे ही लोग हैं जिन्होंने थोड़े से मिलन को जाना। इजिप्त में बड़ी पुरानी उक्ति है, कि तुम परमात्मा को खोजने तभी निकलते हो, जब वह तुम्हें मिल ही चुका होता है। नहीं तो तुम खोजने कैसे निकलोगे? लेकिन तब विरह बहुत सताता है ।लेकिन उस विरह में आनंद है। उस विरह में परम आनंद है। वह विरह पीड़ा जैसा नहीं है। वह विरह बड़ा मधुर और मिठास भरा है। तुमने मीठी पीड़ा जानी? वह विरह मीठी पीड़ा है। बड़ी मधुरी है पीड़ा। काटती रहती भीतर, लेकिन संगीत की तरह।स्वर उसका गूंजता रहता है, लेकिन वीणा के स्वर की भांति। धन्य हैं वे, जिन्हें थोड़ा सा मिलन का स्वाद मिला और जो महा-मिलन की पीड़ा से भर गए हैं। जिनका शरीर वीणा हो गया। और उस वीणा पर एक ही स्वर निरंतर उठ रहा है–विर का स्वर।
*मिलन के बाद विरह है और विरह के बाद महा-मिलन*